दिनांक: 04 मई 2025 | स्थान: महाराष्ट्र ,वसई]
(नजीर मुलाणी )
जब अपने ही कहें – "अब आप बोझ हैं"
वसई : -बढ़ती संवेदनहीनता के बीच बुजुर्गों की हालत दयनीय, बच्चों द्वारा घर से निकाले जा रहे माता-पिता
एक माँ-बाप ने जीवन भर मेहनत कर अपने बेटे को पढ़ाया-लिखाया, घर बसाया और अपने सपनों को पीछे छोड़ उसकी जरूरतें पूरी कीं। पर आज वही बेटे ने उन्हें यह कहकर घर से निकाल दिया कि "अब आप हमारे लिए बोझ हैं। हम आपकी परवरिश नहीं कर सकते।"
यह कोई अकेली घटना नहीं है। देशभर से ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं, जहाँ वृद्धजन—जो कभी घर की रीढ़ थे—आज तिरस्कार और उपेक्षा का शिकार बन गए हैं।
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भूखा रखना, दवा न देना – बढ़ती क्रूरता
पड़ोसियों की माने तो कई वृद्धजन सुबह से रात तक एक कोने में बैठे रहते हैं।
उन्हें समय पर भोजन नहीं दिया जाता,
दवाएं छूट जाती हैं,
कोई बात करने तक नहीं आता।
यह सब प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानसिक और भावनात्मक हिंसा है।
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"आपने हमें क्या दिया?" – सवाल नहीं, कटाक्ष है
कई बार बच्चे यह तर्क देते हैं कि माँ-बाप ने उनके लिए कुछ खास नहीं किया, इसलिए वे अब जिम्मेदार नहीं। यह कथन भारतीय सामाजिक संस्कृति और संवेदना की नींव को झकझोर देता है।
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कानून की नज़र में अपराध
भारत सरकार का "Maintenance and Welfare of Parents and Senior Citizens Act, 2007" यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी संतान अपने माता-पिता को उपेक्षित नहीं कर सकती।
माता-पिता अपनी संतान के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकते हैं
कोर्ट उनके रख-रखाव के आदेश दे सकता है
दोषी पाए जाने पर सजा का भी प्रावधान है
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समाज और नई पीढ़ी को देखना होगा आईना
समाज को इस पर आत्ममंथन करना होगा कि आखिर कहां चूक हो रही है।
स्कूलों में पारिवारिक मूल्यों की शिक्षा जरूरी है
सोशल मीडिया के प्रभाव के बीच ‘मानवता’ का पाठ दोहराना होगा
धार्मिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को भी इस विषय में पहल करनी चाहिए
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निष्कर्ष
जिस मां ने अपने बेटे को भूखे पेट रखकर पाला, वही आज उसी बेटे के घर में भूखी रह रही है। यह सिर्फ पारिवारिक विफलता नहीं, समाज के आत्मा का पतन है।
जरूरत इस बात की है कि हम ‘बुजुर्गों को बोझ’ समझने की सोच को जड़ से खत्म करें—वरना कल यही व्यवहार हमारे लिए भी लिखा होगा।
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