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पैसे वालों की इंसानियत और गरीबों की इंसानियत
इंसानियत – एक ऐसा शब्द जो जात-पात, अमीरी-गरीबी से परे होता है। पर क्या वाकई समाज में ऐसा होता है? आज हम एक ऐसे विषय पर बात कर रहे हैं जो न केवल विचार करने योग्य है, बल्कि आत्ममंथन की माँग भी करता है – पैसे वाली की इंसानियत बनाम गरीबों की इंसानियत।
पैसे वाले अक्सर अपनी इंसानियत को दिखाने के लिए बड़े मंचों और आयोजनों का सहारा लेते हैं। वे दान करते हैं, ट्रस्ट खोलते हैं, और नाम कमाने के लिए समाज सेवा के कार्यों में भाग लेते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि वे बहुत कुछ करते हैं, परंतु कई बार यह सब दिखावे और प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए किया जाता है। उनकी इंसानियत सोशल मीडिया पर तस्वीरों और खबरों में कैद हो जाती है।
दूसरी ओर, गरीब की इंसानियत अक्सर बिना किसी प्रचार के, बिना किसी उम्मीद के सामने आती है। एक रिक्शावाला ठंड में किसी बेसहारा को अपनी चादर दे देता है, एक झोपड़पट्टी में रहने वाला मजदूर भूखा होते हुए भी अपने हिस्से का खाना किसी और को खिला देता है। यह इंसानियत दिल से निकलती है, न कि किसी छवि निर्माण के लिए।
गरीबों की इंसानियत में सच्चाई, संवेदना और अपनापन होता है। वह जरूरत पड़ने पर बिना सोचे मदद करता है, क्योंकि उसे दिखावे की जरूरत नहीं होती। पैसे वाले की इंसानियत संसाधनों से समृद्ध हो सकती है, पर उसमें वह आत्मीयता नहीं होती जो एक गरीब के पास होती है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि दोनों की इंसानियत के मायने और अभिव्यक्ति अलग-अलग हो सकते हैं, पर अगर तुलना की जाए तो गरीब की इंसानियत कहीं ज़्यादा वास्तविक, निस्वार्थ और प्रभावशाली होती है।
निष्कर्ष:
इंसानियत का मूल्य उसके पीछे के इरादों से तय होता है, न कि दौलत से। पैसा इंसानियत को बड़ा बना सकता है, लेकिन गरीब की इंसानियत उसे महान बनाती है।
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